रविवार, 28 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. पुस्तक-समीक्षा
  4. The end of the sun is a collection of mature contemporary couplets
Written By
Last Updated : बुधवार, 18 जनवरी 2023 (16:09 IST)

परिपक्व समकालीन दोहों का संग्रह है धूप का छोर

seema pandey
- रघुविंद्र यादव 
आजकल बड़े पैमाने पर दोहे लिखे जा रहे हैं। हालांकि दोहाकारों की भीड़ में कुछ लोग अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में सफल हो रहे हैं, तो कुछ लोग केवल लीक पीट रहे हैं। दोहाकार के रूप में खुद को साबित करने वालों में मातृशक्ति भी पूरी गंभीरता से जुटी हुई है। युवा महिला दोहाकारों में सीमा ‘सुशी’ समकालीन दोहा की सशक्त हस्ताक्षर बनकर उभरी हैं।

‘धूप का छोर’ सीमा पांडेय मिश्रा ‘सुशी’ का पहला दोहा संग्रह है, जिसका हाल ही में लोकार्पण हुआ है। इस संग्रह के लगभग सभी दोहे कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से बहुत प्रभावशाली हैं। कथ्य में विविधता और शिल्प में कसावट है। इन दोहों में समकालीन दोहा की तमाम विशेषताएं मौजूद हैं।

उन्‍होंने घर- परिवार, प्रकृति, किसान, समाज, आशा- निराशा, वेदना- संवेदना, आधी आबादी, विसंगतियों, विद्रूपताओं, बचपन, भूख, गरीबी, नैतिक पतन आदि जीवन से जुड़े हर पहलू पर सुंदर दोहे लिखे हैं। उन्होंने बिंब और प्रतीकों का समुचित प्रयोग करके अपनी अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाया है।

कोई दोहा कोट नहीं कर रहा हूं, क्योंकि संग्रह के सभी दोहे अच्छे हैं। बहुत अधिक विस्तार में न जाते हुए बस इतना कहना चाहूंगा कि यह संग्रह उन्हें समकालीन दोहाकार के रूप में मान्यता दिलवाएगा ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। सीमा को बेहतरीन दोहा संग्रह के लिए बधाई।

सीमा को इस बात के लिए भी बधाई देना चाहूंगा कि उन्होंने सतसईकार बनने की भेड़ चाल से बचते हुए संग्रह में केवल स्तरीय छह सौ दोहों को ही शामिल किया है। जिससे यह अधिक प्रभावी बन गया है। पुस्तक की छपाई, आवरण, प्रस्तुतिकरण सबकुछ सुंदर हैं। हां, कुछ जगह प्रूफ की अशुद्धियां अवश्य रह गई हैं। (ये भी संभवत प्रकाशक के प्रूफ रीडर की अधिक समझदारी का नतीजा है। जिसने दुख को ठीक करके दुःख कर दिया और ना को न)

स्त्री-विमर्श इस संग्रह की विशेषता है
पुस्‍तक विमाचन के मौके पर लेखक, चिंतक और विचारक मनोज श्रीवास्तव ने कहा कि इस दोहा-संग्रह की एक विशेषता इसमें किया गया स्त्री-विमर्श है। और यह किसी सायास या फ़ैशनेबल तरीके से नहीं किया गया है, लेकिन यह ऑब्जर्वेशन में आए बिना रह भी नहीं सकता था, यदि संवेदना सीमा की-सी हो। एक बार वो कहती है: मांगे हिस्से में जहां, बहना राखी वाले हाथ ने, बंद किए तब द्वार। और एक बार यों : रोज मिले अवहेलना, कविता में तारीफ़ / आसमान के चांद-सी स्त्री की तकलीफ़। या एक बार वह कहती हैं : पिता रिटायर हो गए, मां का जारी काम/मां को ही सब चाहते, बंटवारे के नाम। या फिर यह कि-बिल्ली को मौसी कहे चंदा मामा जान/ मां से कितना है जुड़ा, भोला- सा नादान।

इस दोहा-संग्रह में लेकिन नारी को ही नहीं, दुनिया के यथार्थ और उसकी विद्रूपताओं को भी इतनी बारीकी से पकड़ा गया है : चित्र मिले अखबार को, वादों को बाज़ार। ओलों से चौपट फसल, बढ़ा गई व्यापार। या न्याय भले ही न मिले मिले धैर्य को मान/ तीस बरस तारीख पर आता रहा किसान। यह भी कि : अर्थव्यवस्था बढ़ रही, कैसे हो विश्वास/ चार भिखारी बढ़ गए, फिर सिग्नल के पास। या यह रियलाइजेशन कि ‘रोटी के आकार से, कम वेतन का माप। गरम तवे पर नीर के, छींटे बनते भाप।
ये भी पढ़ें
वामा साहित्य मंच की नई कार्यकारिणी का गठन, अध्यक्ष होंगी इंदु पाराशर और सचिव शोभा प्रजापति